पार्किंसंस मित्र मंडल का अपना कोई ऑफिस नहीं है। हम कार्यकारिणी की बैठक अपने किसी न किसी सदस्य के घर पर आयोजित करते है। हम एक केंद्रीय स्थान तय करते हैं जो सब सदस्यों के लिए सुविधाजनक हो। हमारी एक सदस्या रेखा आचार्य पिछले सात आठ सालों से बैठक अपने घर में करने को कह रही थी , लेकिन वह ऍमआएटी महाविद्यालय के परिसर में रहती थी , जहां पहुंचना हर किसी के लिए आसान नहीं था। अब उनके बेटे ने उन्हें प्रभात रोड पर नया घर ले दिया है। वहां रहने आने पर रेखा पुनः हमसे अपने नए घर में कार्यकारिणी बैठक करने आग्रह कर कहने लगी ," अब तो मैं पास में ही रहने आ गयी हूँ , अब किसी का कोई बहाना नहीं चलेगा। " ऐसे प्रेम पूर्वक अनुरोध के कारण कार्येकारिणी की जनवरी में होने वाली बैठक उनके घर में आयोजित करने का निर्णय लिया।
बैठक वाला दिन निकलने तक कई सदस्यों का किन्हीं अपरिहार्य कठनाइयों के कारण बैठक में आना मुमकिन नहीं हो पा रहा था। ऐसे में सिर्फ कुछ सदस्ये जैसे परवर्धन , करमरकर , आशा रेवणकर और हम दम्पति ही रह गए। ऐसे समय पर अक्सर हम बैठक रद्द कर देते है क्योंकि हमारा कोई तय कार्येक्रम नहीं है। पहले फ़ोन से और अब व्हाट्सप्प के जरिये एक दुसरे से संपर्क कर मीटिंग का दिन और समय बदल लेते हैं।
लेकिन चूंकि हमने इतने सालों बाद रेखा के घर जाने का फैसला किया था और हमें लगा कि हो सकता है उसने कुछ तैयारी कर रखी हो, तो हमने उसे कहना ठीक नहीं समझा। अतः हमने निर्णय लिया कि जितने सदस्य आ सकें उतने ही चलते हैं और कुछ सामान्य विषयों पर चर्चा कर लेंगे। दरअसल हमारा मुख्य इरादा रेखा के आग्रह का मान रखने के लिए उसके घर जाना था।
इस से पूर्व , रेखा ने अपने घर आने वाले सभी कार्येकारिणी सदस्यों को अपने निवास का पता ,हम अपने घर से उसके घर कैसे पहुंचे , लैंडमार्क आदि की जानकारी निजी तौर पर फ़ोन कर समझा दी थी और आग्रह किया था कि उसके घर ज़रूर आएं। हम तय किये हुए दिन और समय पर रेखा के घर पहुँच गए।
आगे बढ़ने से पहले आपको रेखा आचार्य का परिचय देना ज़रूरी है। तीन चार वर्ष पहले हुई अपने पति की मृत्यु के बाद वह अकेली रहती है। एक शुभचिंतक के रूप में उसका व्यवहार काफी अनुकरणीय है। बेहद ऊर्जावान व्यक्तित्व है उसका। ११ अप्रैल को होने वाले मित्र मंडल के पार्किंसंस दिवस के होने वाले कार्येक्रम के लिए गुलदस्ते और फूलों की वित्तीय जिम्मेदारी रेखा ने स्वयं अपने ऊपर ले ली है। मंडल की हर साल होने वाली पिकनिक पर वो खुशी खुशी आती है।
रेखा को सत्तावन वर्ष की उम्र में पार्किंसंस हुआ। पर उसका निदान होने में तीन चार वर्ष लग गए। वो अपने बेटे के पास अमेरिका गयी थी , तब वहाँ के डॉक्टर ने उसे पार्किंसंस होने की पुष्टि की। इसको रेखा ने बहुत ही सकारत्मक रूप में स्वीकार किया। कहा जा सकता है कि सामने आने वाली परिस्थिति में खुद को ढाल लेना उसके स्वाभाव की विशेषता है। विवाह से पूर्व वो फिजियोथेरेपी की पढाई कर रही थी, शादी के बाद उसे ये पढाई छोड़नी पड़ी। फिर उसने MA की पढाई की , लेकिन पति के नाइजीरिया नौकरी लग जाने पर वो उनके साथ नाइजीरिया चली गयी। वहां वो स्कूल में पढ़ाने लगी।
रेखा जब नाइजीरिया से भारत लौटी तब तक स्कूल में पढ़ाने के लिए B Ed करना आवश्यक हो गया था। उसके बिना किसी भी स्कूल में पढ़ाना मुमकिन नहीं था। फिर उसने स प कॉलेज से बालवाड़ी का कोर्स किया। उसी समय MIT में बालवाड़ी की शिक्षकों के लिए साक्षात्कार शुरू हुई । हज़ारों अर्जियों में से रेखा का चयन हो गया। थोड़े ही समय में, वह एक शिक्षिका के पद से बढ़कर किंडरगार्टन की निति-निर्धारण समिति की सदस्य बन गईं और बड़ी सफलता के साथ मराठी और अंग्रेजी दोनों माध्यमों में किंडरगार्टन की स्थापना की। संक्षेप में , उसने अवसर मिलते ही उनका लाभ उठाया और लगातार काम कर खुद को व्यस्त रखा। ये उनके महा गुणों में से एक था। इसलिए अपने पति की मृत्यु के बाद भी वह अकेली आराम से रह सकती है।
जब हम उसके घर गए तब हम रेखा की शारीरिक स्थिति को लेकर हम थोड़ा सशंकित थे। क्योंकि रेखा का ऑन पीरियड तीस घंटे का होता है और फिर उसका ऑफ पीरियड शुरू हो जाता है। अब वो सत्तर वर्ष से अधिक की हो चुकी है और पार्किंसंस जो सैंतालीस साल की उम्र से मौजूद है जो अब काफी बढ़ गया है। इस लिया हमें लगा कि रेखा खाने पीने का सामान बाहर से मँगवायेगी, लेकिन हम उसकी शानदार तैयारी देखकर आश्चर्यचकित हो गए। गुड़ की रोटी , दही वड़े, तुअर के गीले दानों की भरवां कचोरी का ज़ोरदार आयोजन था। ये सब जटिल व्यंजन रेखा ने खुद घर पर बनायी थी , कहीं से आर्डर नहीं किया था। घर में जो काम करने आती थी उसकी सिर्फ थोड़ी मदद ली थी। रेखा बोली , " मुझे उसको ये व्यंजन बनाने सीखाने थे इसलिए मैंने ये बनाये।" हमें उम्मीद नहीं थी कि वह इतना सारे व्यंजन बनाएगी, सारे व्यंजन अच्छे बने थे। "गुड़ की रोटी के लिए आटा मैंने ही गुंधा और कचोरियों में मसाला भी मैंने ही भरा " रेखा बोली। अर्थात सारा मुख्य काम रेखा ने किया था , नौकरानी से सिर्फ ऊपर ऊपर का काम करवाया था। वो हमें मनुहार कर परोस रही थी।जब रेखा ने मुझसे कहा , "शोभना ताई , आप को चने की दाल से तकलीफ होती ना , इस लिए मैंने किसी भी व्यंजन में उसका प्रयोग नहीं किया। आप बिना हिचकिचाट खाएं। " मैं ये सोचकर हैरान रह गयी कि रेखा ने हम सभी के खान पान सम्बन्धी परहेज़ का भी ध्यान रखा था। मुझे चने की दाल खाने से तकलीफ होती है ये बात वो जानती है ये सोचकर मुझे आश्चर्य हुआ। उसने हमारी मेहमान नवाज़ी कितने प्यार से की ये समझना ज़रूरी है। कुल मिलकर उसका ये स्वाभाव की जो करना है उसे सच्चे मन सच्चे दिल से करना है हमारे मन को छू गया।
रेखा अपने कई दोस्तों को हर काम में अपने साथ लेकर चलती है। जिस दिन हम उसके घर गए तब उन्होंने नयना मोरे को भी न्योता दिया हुआ था। नयना मोरे हमारे एक दिवगंत सदस्य कर्नल मोरे की धर्मपत्नी हैं। रेखा की तरह नयना भी MIT के करीब रहती थी। इन दोनों में इसलिए अच्छी दोस्ती थी। जब हम आनंदवन गए थे तब रेखा के साथ उसकी साथी के रूप में नयना ही आयी थी। उसी तरह जनवरी में हुई हमारी बैठक में भी वो दोंनो साथ आयीं थीं। रेखा को हमेशा नयना का साथ मिलता है। वह दोनों सिनेमा नाटक देखने साथ ही जातीं हैं। इन दोनों को संगीत से भी काफी लगाव है। हर कार्यक्रम में रेखा के साथ कोई कोई सहेली ज़रूर होती है , उसकी सबसे दोस्ती है।
पहले रेखा का घर MIT के पास था , इस लिए उसने दो लड़कियों को पेइंग गेस्ट के तौर पर रखा हुआ था। सुबह का नाश्ते को छोड़कर रेखा उन्हें दोनों वक़्त का खाना खिलाती थी। कॉलेज करीब होने के कारण वह दोनों दोपहर का खाना खाने घर आतीं। तो रेखा उन्हें अपने साथ बैठकर बढ़िया बढ़िया ,गरम, ताज़ा खाना खिलाती। फिर जब रेखा प्रभात रोड पर रहने आयी तो उसे लगा कि कॉलेज दूर होने के कारण शायद वे दोनों अब उसके पास नहीं रहेंगी। लेकिन उन लड़कियों को आचार्य दादी से इतना लगाव हो गया था कि वे कॉलेज दूर होने के बावजूद उनके साथ ही रहने आ गयीं। हमारे साथ साथ रेखा ने उन लड़कियों को भी मनुहार कर पेट भर खाना खिलाया।
भोजन के पश्चात, दोनों लड़कियां फिल्म देखने जा रहीं थीं। रेखा के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे ' ये रे ये रे पैसे ' फिल्म देखने जा रहीं है। उसपर रेखा बोली , " बिलकुल मत जाओ देखने , मैं परसों ही देखकर आयीं हूँ। " ये सुनकर कि वह पहले ही फिल्म देख चुकी है ,हमें समझ नहीं आया कि उसके उत्साह की कितनी और कैसे सरहाना की जाए। अगली बैठक में चर्चा करते हुए वो बोली, " हमारी अगली सभा नर्मदा सभागृह में है ना, वहाँ पचास साठ कप चाय ही तो चाहिए होगी , वो मैं अपने घर से ही आऊंगी " बाप रे ! रेखा के एक एक जोशीले बोल सुनकर हम बार बार आश्चर्य चकित हो रहे थे।
जब ये सब चल रहा था तब मैं एक अलग ही सोच में थी। मैंने अपने आप को रेखा की जगह पर रख कर देखा, अगर मैं उसकी जगह होती तो शायद अपने लिए भी एक कप चाय बनाने के बारे में ना सोचती। बाकियों को बुलाकर खुद खाना बनाना और खाना खिलाना तो बहुत ही दूर की बात है। बाद में भी वे मुझसे कई बार कहती , " शोभनाताई, मीटिंग के बाद आप यहीं आ जायां करें , थोड़ा विश्राम कर रात खाना खा कर फिर अपने घर चली जाएँ करे। " मैं एक बार फिर आश्चर्य चकित हो गयी।
भोजन के पश्चात , रेखा सूंदर नैप्किन्स का ढेर लेकर आयीं और हमसे अपने लिए उपहार रूप में चुनने को कहा। ये 'नल्ली' के नैपकिन वो चेन्नई से लायी थी। हमने उनमें से अपने लिए ले लिए। हाल ही संक्रांत हो चुकी थी ,उसने हमे तिल के लड्डू भी दिए। संक्षेप में कहा जाए तो रेखा को घूमने का शौक है,उसे खरीदारी करने का शौक है, उसे संगीत का शौक है और ना जाने क्या क्या लेकिन उसने पार्किंसंस को अपने शौकों में रूकावट नहीं डालने दी।
रेखा जैसे व्यक्तित्वों को मिलकर में हमेशा ही भावुक हो जाती हूँ। मैं कई दिनों से सोच रही थी कि मैं किसी ऐसे पार्किंसंस पीडितां के घर जाऊँ जो अकेली रहती हो , देखूं कि वो कैसे रहती है , वे अपना जीवन कैसे जीती हैं उनपर एक फिल्म बनाऊं। लेकिन मैं ये अभी तक नहीं कर पायी , लेकिन कम से कम, 'पार्किंसंस के हमसफ़र' के ज़रिये उनके बारे में अपने अनुभव साझा कर सकती हूँ। रेखा के घर से निकलते हुए मैं उसे गले मिली , मुझे लग रहा था कि मैं उसकी सकारत्मक ऊर्जा अपने अंदर भर लूँ। उसे चलता हुआ देखकर देखने वाले को लगता है कि वह अब गिरी , तब गिरी, लेकिन हक़ीक़त में वो घर भर घूम रही थी और हमें लगातार कुछ ना कुछ दिखा रही थी। ये सब देखने और अनुभव करने के बाद तो बस यही कहा जा सकता है कि " रेखा तुझे सलाम "
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