वह जो बिछड़ गए # २ मोहन कुलकर्णी शोभना ताई
- Harsha Khanna
- Aug 12, 2024
- 3 min read
Updated: Aug 20, 2024
आज ११ अप्रैल विश्व पार्किसंस दिवस के रूप में याद रहता है , लेकिन मोहन कुलकर्णी के स्मृति दिवस की रूप में भी याद रहता है। वह मृदुभाषी , बुद्धिमान, दयालु और कला प्रेमी व्यक्तित्व के मालिक थे। हम उनसे मिलने उनके घर भी गए थे। उनका कहना था कि पार्किंसंस मेरी कई बीमारियों में से एक है। उन्हें कम सुनाई देता था इस लिए शायद वो कम बोलते थे। लेकिन मेरे पति और उनका कार्यस्थान एक ही होने के कारण वह आपस में बहुत बातें करते थे। वह KSB में HR हेड थे। वैसे उन्होंने पुणे इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग की थी लेकिन पीएचडी उन्होंने HR में की थी। मोहन कुलकर्णी से हमारी अच्छी पहचान आनंदवन की यात्रा के दौरान हुई। उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए , उन्हें यात्रा पर ले जाना बहादुरी का काम था लेकिन उषा ताई ने ये कार्य कर दिखाया। ना बोलने वाले कुलकर्णी , प्रवास के दौरान थोड़ा थोड़ा खुलने लगे। वह धारवाड़ से थे। वैसे तो उनकी मातृभाषा कन्नड़ थी लेकिन उनका मराठी से भी काफी लगाव था। नागपुर से लौटते हुए हम मराठी गानों की अंताक्षरी खेल रहे थे , तब कुलकर्णी कई पुराने मराठी गाने सुझा रहे थे। उन्होंने बचपन में धारवाड़ रेडियो पर कई कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था ये बात हमें यात्रा के दौरान पता चली।
आनंदवन की यात्रा और वातावरण के कारण उनमें एक आत्मविश्वास जग गया था। कुलकर्णी ने एक कन्नड़ कवि (जिनका नाम मुझे याद नहीं है )के बारे में मुझे बताया था कि उन्होंने कहा था कि अगर इस जन्म में आप एक बार हम्पी नहीं गए तब आपका जीवन बेकार है। हम्पी देखने की उनकी इच्छा और आत्म विश्वास दोंनो ही बलवान होते जा रहे थे। आनंदवन से लौटने के कुछ ही दिन बाद कुलकर्णी और उषा ताई स्पेशल गाडी कर हम्पी और बदामी घूम आये। अपनी उस ट्रिप की सीडी देखने के लिए वह हमें कई बार आमंत्रित कर चुके थे। जब हम उनके घर गए तब वो बहुत ही खुश हुए। केशवराव और अंजली महाजन के साथ उनकी बहुत ही अच्छी दोस्ती हो गयी थी। एक दोपहर वह अंजली के घर आने वाले थे और वहां से बागुल उद्यान में लेज़र शो देखने का प्रोग्राम बना , इस में आनंदवन की ट्रिप के कई साथी एकत्रित हुए।
वह मासिक बैठकों में भाग लेने आने लगे। पहले वह बैठक में आने से कतराते थे क्योंकि उन्हें वक्ता का भाषण सुनने में कठिनाई होती थी। लेकिन अब उन्हें वहाँ अपने दोस्त मिलने लगे थे इस लिए उन्हें आने में आनंद आने लगा। एक बार हमारे घर इकठ्ठा होने का प्रोग्राम बना , लेकिन वो कई दिनों तक बेळगाव रहे, वे लौटे तब हम अपनी बेटी के घर गए हुए थे , इस तरह हमारे घर उनका हो ही नहीं पाया। इस बात का हमें आज तक अफ़सोस है।
उनकी विभिन्न बीमारियां अब सिर उठाने लगी थीं। उनकी हर्निया की सर्जरी हुई, फिर बायपास सर्जरी हुई। एक पैर प्रयाग हॉस्पिटल में और दूसरा घर में , ऐसी ही ज़िन्दगी काफी समय तक चली । हॉस्पिटल के कर्मचारी घर के सदस्य की तरह हो गए थे। उषा ताई ने अकेले ही सब कुछ संभाला।
उषा ताई ने मोहन राव की परोपकार की विरासत को जारी रखा है। नाम ना जाहिर करने की शर्त पर उन्होंने मंडल को काफी बड़े दान दिए। आनंदवन , मुक्तांगण यहाँ भी काफी गुप्त दान किया । उन्होंने इसका कभी ढिंढोरा नहीं पीटा। मैं आज अपना दिया वचन तोड़ कर उनकी अमोघ उदारता के बारे में सबको बता रही हूँ। उषा ताई , कुलकर्णी के जाने के बाद भी सभाओं में तथा यात्राओं में हमारे साथ आती हैं। पार्किंसंस मित्र मंडल एक परिवार की तरह हो गया है। इसलिए भले ही पार्किंसंस से पीड़ित मरीज़ से चले भी जाएँ लेकिन उनके शुभचिंतक , परिवार के सदस्य मंडल में उसी प्यार और अपनेपन से आते हैं।