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किस्से पार्किंसंस के #७७ - शोभना ताई तीर्थली
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किस्से पार्किंसंस के #७७ - शोभना ताई तीर्थली

Updated: Jan 26


(Read it in English) (मराठी भाषेत वाचा) उन्हें रिटायर हुए २३-२४ वर्ष हो चुके है। फिर भी जो लोग उनके साथ काम करते थे, वो आज भी उनसे प्रेम करते हैं, उनकी इज़्ज़त करते हैं मिलने आते है। उनकी सेहत अब पहले जैसी नहीं है। उनका वज़न भी काफी गिर गया है , उन्हें बोलने में भी कठिनाई होती है , कमर भी झुक गयी है। उन्हें कुर्सी से उठने के लिए सहारे की ज़रुरत होती है। ये सब देखकर, आने वाले अक्सर दुःखी हो जाते हैं। पर जब वह सबको पहचानते हैं, उन्हें देखकर खुश होते हैं , तब आने वाले भी खुश हो जाते है। हमें ये बार बार होने वाले घटनाओं की अभी तक आदत नहीं हुई है। हम हमेशा कहते हैं कि ८१ वर्ष की उम्र और २३ साल से PD से पीड़ित होने पर भी उनकी अवस्था बहुत अच्छी है। पर हम ये भी जानते है कि छोटी छोटी चीज़ो के लिए किसी पर निर्भर रहना कितना कष्टदायक है, विशेषकर उस व्यक्ति के लिए जिसमें इतनी ऊर्जा, उत्साह और हिम्मत हो।


जब हम पार्किंसंस से पीड़ित लोगों के घर जाते हैं , तो हम ये महसूस करते है कि उन्होंने अपनी परिस्थिति को स्वीकार नहीं किया है। मेरी लिखाई कितनी अच्छी थी -अब नहीं है। मैंने कितने पहाड़ो पर चढ़ाई की है , लेकिन अब में सीढ़ी भी नहीं चढ़ पाता। पहले मैं कितना वज़न उठा लेता था , अब एक बैग भी नहीं उठा पाता। पहले मैं कितने लोगों का खाना बना लेती थी , अब तो खुद के लिए एक कप चाय भी नहीं बना पाती। उनका जीवन उन्हीं विचारों में अटक कर रह गया है। इस वजह से उनके पार्किंसंस के लक्षण तीव्रता से बढ़ते हैं ।


लेकिन श्री तीर्थली का मामला ऐसा नहीं। उन्होंने पारकिनसन्स को स्वीकार किया लेकिन उससे आने वाली निर्भरता के सामने वो झुके नहीं। वो दुःखी नहीं हुए। वह आत्मसम्मान से भरे हुए थे। निदान होने पर हमने कुछ गलतियां की। जब कुछ लोगों ने दावा किया कि पार्किंसंस का इलाज संभव है हमने उनपर विश्वास किया। श्री मधुसूदन शेंडे एवं शरतचंद्र पटवर्धन से मिलने के पश्चात और पार्किंसंस मित्रमंडल से जुड़ने के बाद उन्होंने जैसे पार्किंसंस से मित्रता कर ली और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस सम्बन्ध को अब २३ वर्ष हो चुके हैं।


जब आप एक बार पार्किंसंस को अपना लेते है, तब इसे समझना आसान हो जाता है। इसके साथ दोस्ती करना , इसके साथ ख़ुशी से जीना भी सरल हो जाता है, हम ये बार बार दोहरते है कि पार्किंसंस को अपनाना ज़रूरी है और इस के लिए हमने कई उद्धरण भी देते है। जिन लोगों के जीवन में पार्किंसंस नया मेहमान बनकर आया है, उनके लिए ये सोच बहुत सहायक होगी। इसे स्वीकार करना हर बार ही ज़रूरी है क्योंकि पार्किंसंस एक एक कर अपने तरकश से बाण निकालता है। जिस वजह से हर बार नयी परिस्थितियाँ उभर कर आती है , जिन्हें स्वीकार करना पड़ता है।


उदाहरणार्थ, आरम्भ में सिर्फ कम्पन तथा कार्यो में धीमापन था , उस समय वह गाडी चला पाते थे , अकेले सब जगह जा सकते थे। फिर, बोली पर असर हुआ , लेकिन लिखाई सही थी , धीरे धीरे गाडी चलाना बांध हुआ। पर, वह अकेले ऑटो रिक्शा में सफर कर पाते थे , चलने फिरने में किसी की सहायता की जरूरत नहीं थी। PD के १९ साल पहले निदान होने पर भी वह अकेले पास के बगीचे में व्यायाम करने जाते थे। फिर कमर झुक गयी। Covid में स्वस्थ और गिर गया। उस समय ब्यूरो (bureau) से एक सहायक को नियुक्त करना पड़ा। इस से भी वह उत्तम तरीके से निकल आये। उनका दवा का उपभोग ज्यादा नहीं बढ़ा। हर चरण पर नयी परिस्थिति को स्वीकार करना सरल नहीं होता। शुभंकर एवं शुभचिंतक दोनों को इसके लिए कोशिश करनी होगी। नियमित तौर पर प्राणायाम , ध्यान , कोई शौक( जैसे साहब का मराठी गीत संगीत सुनना) , पारिवारिक रिश्ते, स्वयं सहयता समूह (self help group) से मिलना जुलना भी काफी सहायक होता है।


एक बात और ,"कई लोग मुझे अपना प्रेरणास्तोत्र समझते है, अगर मैं खुश नहीं रहूँगा तो उनपर भी इसका असर होगा" , ये बात भी उनके दिमाग में चलती रहती है।वह अपनी इस छवि को वह लोगों के मस्तिष्क में जीवित रखना चाहते हैं।आप भी औरों के लिए प्रेरणास्तोत्र बन सकते हैं।चलिए तब तक हम एक दुसरे को सहकार्ये करते हुए इस मार्ग पर साथ चलें।

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