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किस्से पार्किंसंस के #६ शोभना ताई

Updated: Jul 4

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पार्किंसंस के साथ खुश  रहें  ,उसे अपना मित्र बना ले , ये कहने में कितने आसान लगता है पर वास्तव  में इसको अमल में लाना बहुत ही कठिन है।  और अगर ये पार्किंसन, कम उम्र में हो जाए तो ये और भी मुश्किल होता है।  लेकिन ये नामुमकिन बिल्कुल नहीं है।  ये कठिन क्यों है ये हम समझने की कोशिश करते हैं।  एक तो पार्किंसंस होने पर हाथ पैरो में कम्पन के कारण रोगी की काम करने की गति कम हो जाती है , बदन में अकड़न आ जाती है , जिसके कारणवश रोज़मर्रा के काम करने में कठिनाईं होती है।  जूतों की लेस बांधना , शर्ट के बटन लगाना , घुमावदार अक्षर लिखना , जैसे काम भी कठिन हो जाते है।  कई बार तो हस्ताक्षर भी नहीं कर पाते।  महिलाओं को खाना बनाने के सरल कामों में दिक्कत आने लगती है। दाल में तड़का लगाने के लिए राइ तेल में डालने जैसे सीधी सी क्रिया भी करना भी मुश्किल होता है।  बोलने में भी अड़चन होती है।  इस तरह से छोटे छोटे कामों में आने वाली तकलीफों के कारण रोगी परेशान हो जाता है।  जीने की गुणवत्ता कम हो जाती है।  इस वस्तुस्थिति को स्वीकारना बहुत ही  कठिन होता है।  बाहर निकलने, लोगों से मिलने में हिचकिचाहट होती है। 

 

इसका एक महत्वपूर्ण पहलु यह है कि जब पार्किंसंस आता है तो अपने साथ मानसिक तकलीफें भी लाता है।  उदासीनता , अवसाद जैसे सामजिक तनाव।  ये मानसिक तकलीफें जैसे दरवाज़े पर ही बैठी होती है , बस ज़रा सी नज़र हटी और दुर्घटना घटी वाली स्थिति होती है।  शारीरिक तकलीफों के लिए दवाई मिल जाती लेकिन इन मानसिक अड़चनों को काबू में करना बहुत ही कठिन हो जाता है।  इस कारण पार्किंसंस पीड़ितों के लिए ही नहीं बल्कि उनकी देख भाल करने वालों के लिए भी अपना शारीरिक , मानसिक ध्यान रखना आवश्यक है।  ये एक तरह  की परीक्षा ही है।  पार्किंसंस पीड़ितों की देख भाल वालों को रोगी की ढाल बनना पड़ता है।  सारी तकलीफें खुद सहन कर रोगी को अवसाद और उदासीनता से बचाना पड़ता है।  ऐसे समय में कब रोगी की ढाल बनना है और कब रोगी को खुद के काम खुद करने देने है इसका ध्यान भी रखना चाहिए।  ये शुभचिंतको के लिए सच में कसौटी होती है। 

 

ऐसे समय में ज़रूरत है एक स्वयं सहायता समूह के।  ऊपर बताये कारणों से ऐसे समूह रोगियों के लिए बहुत ही लाब्दायक होते हैं।   पीड़ित को भी इन स्वयं सहायता समूह में जाकर अपनेपन की भावना का एहसास होता है।  "अरे मेरे जैसे बहुत हैं।  मैं अकेला नहीं हूँ। " ये दिलासा मिलता है।  रोगी अपने अनुभव साझा कर सकते हैं , अपनी तकलीफों के बारे में बात कर अपना मन हल्का कर सकते हैं।  तकलीफें आने पर हम एक दुसरे की सहायता कर सकते हैं , ये आधार मिलता है।  रोने के लिए , अपना मन हल्का करने के लिए कई कंधे मिलते हैं।  स्वयं सहायता समूह के संपर्क में आने से आत्म विश्वास भी बढ़ता हैं।  ऐसे समूह में अक्सर भाषण , स्पेशलिस्ट के लेक्चर्स  होते हैं , जिस से आपकी पार्किंसंस के बारे में ज्ञान बढ़ता हैं।  कई बार कई बातें अज्ञानता के कारण होती हैं।  ये अज्ञान एक बार दूर होने पर उस से मन का डर। अवसाद , कम हो जाता है। इस तरह से इस पर काबू किया जा सकता है। 

 

जब हम पार्किंसंस मित्रमंडल के संपर्क में आये तब हमारी पार्किंसंस से दुश्मनी मित्रता में कब बदल गयी , ये हमें पता ही नहीं चला।  इसके विपरीत , यह भावना जागी कि हम जैसे अन्य लोगों को भी यह लाभ पहुंचना चाहिए।   हमारी तरह के अनेक लोगों के अनुभव हम बता सकते हैं।  श्री कांबले  जो एक ट्रेड यूनियन के नेता थे , बड़ी बड़ी बैठकों में ज़ोरदार भाषण देते थे।  लेकिन अचानक ही वे बोल नहीं पा रहे थे।  हमारी संस्था से जुड़ने के बाद  एक बार उन्होंने अपनी गर्जती हुई आवाज़ में शौर्य गीत सुनाया!  पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध में अपने शौर्य का लोहा मनवाने वाले कर्नल मोरे , पार्किंसंस से पीड़ित होने के घर से निकलने में कतराने लगे थे।  लेकिन उनकी पत्नी के अनुसार , पार्किंसंस मित्रमंडल से जुड़ने के बाद वह मीटिंग वाले दिन समय से १ घंटा पहले तैयार होकर बैठ जाते हैं , उस समय उनका उत्साह देखते ही बनता है।  ये हर सभा , हर पिकनिक , हर लेक्चर में उपस्थित रहते हैं।  श्री सिद्धये को काफी कम उम्र में पार्किंसंस हो गया था , वे जब पहली बार मीटिंग में आये तो अपना परिचय देते हुए वे फुट फुट कर रोने लगे।  उन्हीं श्री सिद्धये ने बाद में मंडल के कार्यक्रम में मंच अपने अनुभव साझा किये और वार्षिक पत्रिका में कई लेख लिखे , परदेस घूमने गए।  क्रिकेट मैच देखने की उनकी बहुत ख्वाइश थी , जो उन्होंने बालवाड़ी में होने वाले मैच को प्रत्यक्ष रुप में देखकर पूरी की।  उन्होंने इन सब के  अनुभवों के बारे में कई लोगों को बताया , सिर्फ मंडल की मासिक पत्रिका में ही नहीं बल्कि ज्येष्ठ नागरिकों की मासिका में अपने अनुभव साझा किये।  इस तरह के कई उद्धरण आपको मैं दे सकती हूँ। 

 

आजकल सोशल मीडिया के कारण दुनिया काफी छोटी हो गयी है , इस लिए दुनिया भर के स्वयं सहायता संघटन 'टुगेदर , वी मूव बेटर ' का फायदा हो रहा है।  ये उदारहण सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के हैं।  छोटी उम्र , यानि सिर्फ सत्रह वर्ष की उम्र में  पार्किंसंस हुआ ऐसे जॉर्डन वेब।  उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर प्रोजेक्ट किया और मनोविज्ञान में डिग्री हासिल की।  लीन यंग जैसे पुरुस्कार हासिल किया। इस लिए अब सिर्फ अपने आसपास के ही नहीं बल्कि सारे जग के उदाहरण आपके सामने होते हैं।  एक दूजे का हाथ पकड़कर ये एक श्रृंखला बनती हैं। अब आप दुश्मन के भी मित्र बने , सिर्फ व्याख्यानों से काम नहीं होगा , आपको इसमें शामिल होना होगा , एक दूजे का साथ देना होगा और एक बदलाव लाना होगा , ऐसा मेरा मानना है। 

 

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